मोदी सरकार के कार्यकाल का तीसरा साल सख्त विदेश नीति का दौर रहा. इस दौर में चुनौतियों से ऊपर उठते हुए केन्द्र सरकार ने साहसिक फैसले किए
नरेंद्र मोदी सरकार के पहले दो साल खुशगवार लम्हों के खत्म न होने वाले सिलसिले की तरह दिखाई देते थे. जब नई दिल्ली दुनिया की तीन सबसे ज्यादा अहमियत वाली राजधानियों: वाशिंगटन, बीजिंग और इस्लामाबाद के साथ बातचीत में व्यस्त थी. इनमें से एक दूरदराज की रणनीतिक भागीदार थी और बाकी दो पास-पड़ोस की रणनीतिक चुनौतियां और सुरक्षा के लिए बुरे सपने की तरह थीं.
इस तरह प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति बराक ओबामा के बीच अभूतपूर्व 7 बार मुलाकातें हुईं. मोदी ने साबरमती नदी के किनारे शी जिनपिंग के साथ एक ही झूले पर बैठकर पींगें लीं. मोदी ने इस्लामाबाद में नवाज शरीफ को गले लगाया और उनकी मां से मिलने रावलविंडी में उनके पारिवारिक घर गए.
यह चकराने वाली शुरुआत थी, जिसमें भारत की कूटनीति ने नया जोशो-खरोश दिखाया और यहां तक कि पाकिस्तान और चीन के साथ रिश्तों में भी बेशुमार संभावनाएं नजर आई थीं. लेकिन मोदी सरकार का तीसरा साल कुछ मायनों में हकीकत का एहसास लेकर आया.
अब संभावनाओं की जगह पाकिस्तान के साथ रिश्तों में तनाव है और चीन की लगातार बढ़ती आक्रामता के साथ रिश्ते बदतर होते जा रहे हैं. इन तनावों की कुछ वजह तो पिछले तीन सालों में व्यावहारिक और भारत-प्रथम विदेश नीति का उभार है, जो केवल एक लक्ष्य को ध्यान में रखकर व्यापार, ऊर्जा और सुरक्षा के तीन स्तंभों के पीछे चलती है.
इस नीति में राजनयिक डरे बगैर चतुराई से वार झेलते हैं और जैसे को तैसा जवाब देते हैं. इसीलिए नींद में डूबे 18 हिंदुस्तानी सैनिकों की जान लेने वाले एक हमले का जवाब पूरे तालमेल के साथ सीमा-पार पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में दहशत के लॉन्चपैडों पर ”सर्जिकल स्ट्राइक” से दिया जाता है.
पहले के हिंदुस्तानी प्रधानमंत्रियों की तरह प्रधानमंत्री मोदी भी भारतीय कूटनीति का सुर तय करते हैं. मगर भारत की विदेश नीति की प्राथमिकताएं तय करते हुए उन्होंने निजी तौर पर एक के बाद एक वैश्विक राजधानियों के सफर की जैसी चौंधियाने वाली रक्रतार कायम की, वैसा उनके कम ही पूर्ववर्तियों ने किया था.
इस्लामाबाद के साथ बातचीत में वही ठहराव बना हुआ है जो 1 जनवरी, 2016 के पठानकोट एयरबेस पर हमले के बाद आया था. लेकिन सरकार ने दूसरे पड़ोसियों नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, क्वयांमार और श्रीलंका के साथ रिश्तों को काफी आगे बढ़ाया और पिछले नवंबर में इस्लामाबाद में होने वाले दक्षेस शिखर सम्मेलन का बहिष्कार करने के लिए इन सभी को राजी कर लिया.
इस जुलाई में प्रधानमंत्री मोदी की तेल अवीव यात्रा, जो 25 साल पहले इज्राएल के साथ रिश्ते कायम करने के बाद किसी भी प्रधानमंत्री की पहली यात्रा होगी. इस यहूदी देश के साथ उसके नजदीकी रिश्तों को आखिरकार बंद कोठरी से निकालकर खुले में ले आएगी.
इसके साथ ही भारत उन मुट्ठी भर बड़े देशों में शुमार हो जाएगा जिसके पश्चिमी एशिया की तीन परस्पर विरोधी सभ्यताओं ईरान, सऊदी अरब और इज्राएल के साथ शानदार रिश्ते हैं. मोदी की उपकप्तान सुषमा स्वराज कठोर कदम उठाने से नहीं झिझकतीं. पिछले साल उन्होंने अदन की खाड़ी में एक हिन्दुस्तानी को बचाने के लिए युद्धपोत मोडऩे को कहा था. लक्ष्यभेदी विदेश नीति का इससे बड़ा प्रतीक क्या होगा भला!
पीएम मोदी का रिकॉर्ड: 54 विदेश यात्राएं
मई और जुलाई के बीच तय सात और यात्राओं को एक साथ जोड़कर पूरे तीन साल में प्रधानमंत्री मोदी 54 विदेश यात्राएं कर चुके हैं. जबकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने 10 साल के कार्यकाल में सिर्फ 80 विदेश यात्राएं ही की थीं. वहीं उससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 से 2004 के बीच महज 19 विदेश यात्राएं कर देश की विदेश नीति को मजबूत करने की कोशिश की थी.