हर धर्म से कुछ ना कुछ रूढ़िवाद जुड़े होते हैं जिसे तथाकथित धर्म के ठेकेदार हमेशा धर्म से जोड़कर सभी धर्मावलम्बी को डरा कर रखते हैं। मध्यकाल के बाद भारत में कई ऐसे बुद्धिजीवी हुए जिन्होंने हिन्दुधर्म में व्याप्त कुप्रथाओं को बंद करवाया।
राजाराम मोहन राय और ईश्वर चंद विद्यासागर आदि जैसे समाज सुधारकों का तत्कालीन धार्मिक मठाधीशों ने बहुत विरोध किया फिर भी वो अपने पथ से डिगे नहीं और उनके निश्चय के कारण हीं हम आज हिन्दू धर्म में सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह ना किये जाने की प्रथा और बाल विवाह जैसे कुप्रथाओं से निजात पा चुके हैं।
ऐसी हीं कुछ कुप्रथाएं दूसरे धर्मों में भी मौजूद रहे हैं पर उसका विरोध कोई नहीं कर पाया। मसलन इस्लाम में व्याप्त तीन तलाक़ की कुप्रथा, भारतीय मुस्लिम समाज में अपनी पत्नी से तलाक़ लेने का वो ज़रिया जिसके अंतर्गत एक मुसलमान पुरुष अपनी पत्नी को तीन बार “तलाक़ तलाक़ तलाक़” कहकर अपनी शादी (निकाह) को किसी भी समय बिना किसी कारण के रद्द कर सकता है। इस कुप्रथा का नरेंद्र मोदी सरकार के पहले तक किसी ने विरोध नहीं किया था।
तीन तलाक़ मुद्दे पर पिछली सरकारें
पिछली सभी सरकारों ने कभी भी इस्लामिक मुद्दे को हाँथ हीं नहीं लगाया। इसका सबसे बड़ा कारण था वोटबैंक की राजनीति। मुस्लिम वोटों की चाहत में कभी किसी सरकार ने मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर कोई कठोर कदम नहीं उठाये, जैसा वो सदियों पहले करते थे वैसा हीं उन्हें अभी भी करने दिया गया।
एक बार जब राजीव गाँधी की कॉंग्रेस सरकार को शाहबानो प्रकरण के समय मौका भी मिला की इस मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं को समर्थन दे पर तब ऐन वक़्त पर राजीव गाँधी सरकार ने अपने हाथ खींच लिए और इतिहास में मुस्लिम महिलाओं की नज़रों में खलनायक बनकर उभरे।
शाहबानो प्रकरण
62 साल की मुसलमान महिला शाहबानो पाँच बच्चों की माँ भी थीं जिनको 1978 में उनके शौहर ने तालाक दे दिया था।अपनी और अपने पांच बच्चों की जीविका का कोई प्रबंध न हो सकने पर शाहबानो ने अपने पति से गुज़ाराभत्ता मांगने के लिये अदालत का दरबाजा खटखटाया । उच्चतम न्यायालय तक इस मामले को पहुँचते पहुँचते सात साल बीत गए थे, इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के तहत निर्णय लिया जो शाहबानों के साथ साथ हर किसी पे लागू होता है चाहे वो किसी धर्म, जाति या फिर संप्रदाय का हो। न्यायालय के आदेश में कहा गया कि शाहबानो को निर्वाह-व्यय के समान कोई जीविका दी जाय।
उस समय भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों के नज़रों में यह निर्णय इस्लामिक संस्कृति और विधानों पर बेंजा हस्तक्षेप था। इससे उनमे असुरक्षा की भावना का अनुभव हुआ और उन्होंने इसका देश भर में विरोध किया। तब के इस्लामिक नेता तथा प्रवक्ता एम जे अकबर और सैयद शहाबुद्दीन थे। इन लोगो ने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की एक इस्लामिक संस्था बनाई और देश के सभी प्रमुख शहरों में बड़े आंदोलन की धमकी दी। इसके बाद उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनकी मांगें मान लीं और शाहबानो पे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया।
तब की कॉंग्रेस सरकार को संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त थी, प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने एक कानून पास कर दिया, जिससे शाहबानों प्रकरण में दिए गए उच्चतम न्यायलय को पलट दिया गया। चुकी सरकार पूर्ण बहुमत में थी, इसी कारण उच्चतम न्यायलय के निर्णय को पलटने वाला तलाक़ अधिकार संरक्षण कानून 1986 किसी भी अड़चन के बिना पास हो गया।
दूसरे मुस्लिम देशों में तीन तलाक़
इस मुद्दे पर अगर भारत से इतर दुनिया के बाकी मुस्लिम देशों पर नजर दौड़ाई जाए तो हमे पता चलेगा की तकरीबन 22 मुस्लिम-बहुल देश, जिनमें पडोसी देश पाकिस्तान तथा बांग्लादेश भी शामिल हैं, अपने यहां तीन बार तलाक की इस पुरानी कुप्रथा को खत्म कर चुके हैं।
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक विश्विद्यालय में प्राध्यापक डॉ मुहम्मद मुनीर ने अपने एक शोध में बताया कि श्रीलंका में तीन तलाक के खिलाफ बना कानून एक बड़ा हीं आदर्श कानून है।
तलाक़ की प्रथा ख़त्म करने वाले देशों की सूची में साइप्रस और तुर्की भी शामिल हैं जहाँ धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपनाया गया है। ट्यूनीशिया, मलेशिया और अल्जीरिया के सारावाक प्रांत में इस कानून के बाहर किसी तरह के तलाक को मान्यता हीं नहीं दी जाती है। शिया कानूनों के तहत ईरान में तीन तलाक की प्रथा का कोई मान्यता हीं नहीं है। कुल मिलाकर महिलाविरोधी यह प्रथा इस समय भारत के अलावा दुनियाभर के सिर्फ कुछ सुन्नी मुसलमान बहुल देश में हीं बची हुई थी।
कितना असरदार होगा तीन तलाक़ विरोधी विधेयक
नरेंद्र मोदी जी की वर्तमान सरकार ने तीन तलाक़ के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई शुरू कर दी है। जिस कार्य को करने की इक्षाशक्ति पिछली किसी सरकार में नहीं थी उस कार्य में मोदी जी ने हाँथ लगा कर फिर एक बार अपनी सबल इक्षाशक्ति का प्रदर्शन किया है।
सरकार द्वारा तीन तलाक़ के खिलाफ लायी गई विधेयक एक सकारात्मक और ईमानदार पहल है जो मुस्लिम महिलाओं को सशक्त बनाने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
इस विधेयक के अंतर्गत अगर कोई पुरुष अपनी पत्नी को तीन तलाक़ देता है तो वो मान्य नहीं माना जाएगा और साथ हीं साथ तलाक़ देने वाले पुरुष को तीन साल तक की सजा का भी प्रावधान इस विधेयक के अंतर्गत किया गया है। किसी भी परिस्थिति में दिया गया तीन तलाक… चाहे वो मौखिक हो या लिखित या फिर इलेक्ट्रॉनिक हो गैरकानूनी हीं कहलायेगा। तीन तलाक से पीड़ित महिला अपने लिए और अपने नाबालिक बच्चों के लिए गुजाराभत्ता और मुआवज़ा मांग सकती है, गुजाराभत्ते और मुआवजे का निर्णय मजिस्ट्रेट द्वारा किया जायेगा।
इस विधेयक को शुरुआती सफलता लोकसभा में मिल चुकी है, विधेयक लोकसभा से थोड़े बहुत विरोध के बाबजूद पास करवा लिया गया है। पर इसे राजयसभा से बह पास करवाना जरुरी है। इसके बाद हीं ये विधेयक कानून की शक्ल लेने की ओर अग्रसर होगा।
विधेयक को मिलने वाली चुनौतियाँ
वैसे तो वर्तमान सरकार लोकसभा में पूर्ण बहुमत में है और लोकसभा से ये विधेयक आसानी से पास भी हो चुकी है पर राजयसभा से पास कराने के लिए विपक्ष की भी मदद की जरुरत पड़ेगी। शाहबानो केस के समय मुँह की खा चुकी कॉंग्रेस अब दूध का जली अब छांछ भी फूंक फूंक के पी रहा है इसीलिए इस मुद्दे पर वो सरकार के साथ खड़ा नजर आ रहा है। पर ममता बनर्जी और ओबैसी बंधू ने इस क़ानून पर विरोध दर्ज करवाया है। इनके विरोध के बाबजूद भी इस बार ऐसी सम्भावना है की सरकार इस विधेयक को आसानी से कानून का रूप दे देगी।