assam me bangladeshi Intruders ki samasya par kya kar rahi hai sarakar

असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या पर क्या कर रही है सरकार

स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि भारत की धरती पर कश्मीर के बाद अगर कोई स्थल है तो वो है असम। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक के इतिहास को देखें तो इन दोनों स्थानों के साथ कुछ भी अच्छा नहीं घटा, एक तरफ कश्मीर में जहाँ आतंकवाद ने अपने पैर पसारे वहीं असम में बांग्लादेशी घुसपैठ ने प्रदेश की शांति को आघात पहुँचाया है।

आजादी से पहले जहाँ असम एक हिन्दुबहुल प्रदेश हुआ करता था वहीं आजादी के बाद बांग्लादेशी घुसपैठ से आज प्रदेश मुस्लिम बहुल हो गया है। हिंसा के माहौल के कारण वहां के हिन्दुओं को स्वनिर्वासन झेलना पड़ रहा है।

सरकार भी कई मर्तवा दबे स्वरों में यह स्वीकार कर चुकी है कि हमारे देश में करीब 20 से 30 लाख बांग्लादेशी घुसपैठिए बिना किसी क़ानूनी दस्ताबेज के अवैध तरीके से रह रहे हैं, जबकि सूत्रों के मुताबिक़ इस समय कम से कम 2 से 3 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए पूरे देश में अवैध तरीके से रह रहे हैं, असम और पश्चिम बंगाल राज्य जहाँ बांग्लादेश की सीमा से सटे होने के कारण इससे सबसे ज्यादा चपेट में आए हैं तो वहीं बिहार के भी कुछ सीमावर्ती जिलों में ये समस्या व्याप्त है । सन 1971 में बांग्लादेश के आजाद होने के बाद से सन 1991 तक असम में हिंदुओं की जनसंख्या में जहाँ 41.89% की वृद्धि हुई थी वहीं इसी कालखंड में मुस्लिम आबादी में 77.42% की बेलगाम वृद्धि हुई।

साल 1991 से साल 2001 के बीच जहाँ असम में हिन्दुओं की आबादी 14.95% बढ़ी वहीं मुस्लिमों की आबादी में 29.3% की वृद्धि देखी गई। वैसे तो मुस्लिमों की आवादी पूरे देश में हिन्दुओं के बनिस्पत बहुत तेज बढ़ी है और साल 2001 में की गई जनगणना में आँखें खोलने वाले आंकड़े दर्ज किये गए थे कि 1961-2001 के दरम्यान मुस्लिम आबादी में जहाँ 2.7% का इजाफा हुआ वही हिन्दुओं की आबादी में 3% की कमी आई है, असम के आंकड़े और तो और भी गंभीर हैं, जहाँ पुरे देश में 1971-91 के दौरान हिन्दू मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि में 19.79% का अंतर रहा पर ये आंकड़ा असम के सन्दर्भ 35.53% का था।1991 से 2001 के बीच ये अंतर 9.3% की अपेक्षा 14.35% हो गया।

ये सारे आंकड़े बताते हैं की बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या किस तरह असम के जनसांख्यिक समीकरण बिगाड़ रही है। बहरहाल इस दिशा में एक बेहतरीन प्रयास सरकार द्वारा जारी है। उच्चतम न्यायलय के ऑर्डर के बाद से हीं असम में नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) को अपटूडेट करने का काम पिछले कई महीनों से जारी है। इससे वहां के मूल भारतियों और अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों में अंतर का पता लगाने का प्रयास किया जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर पर बनाये जा रहे एनआरसी का पहला ड्राफ्ट 2018 के आरम्भ के साथ हीं भारत के महापंजीयक और जनगणना आयुक्त के दफ्तर ने जारी कर दिया । इस सूची के अनुसार तीन करोड़ 29 लाख असं के नागरिकों में से एक करोड़ 90 लाख नागरिक के पास अपनी नागरिकता के वैध दस्तावेज हैं, वहीं बाकी बचे एक करोड़ 39 लाख नागरिकों के नागरिकता की जांच होना अभी बाकी है। यानी वास्तव में असम की जनसँख्या में बांग्लादेशी घुसपैठियों की कितनी संख्या है, इसकी सही सही जानकारी पता करने में अभी कुछ वक्त और लगेगा। ऐसा उम्मीद है कि आने वाले कुछ महीनों में ये कार्य अपने पूर्ण निष्कर्ष पर पहुंच जाएगा।

गौर करने बाली बात है कि साल 1951 के बाद हमारे देश में पहली बार कहीं भी एनआरसी बनाने का काम आरम्भ किया गया है। वर्तमान में असम राज्य में बांग्लादेशी घुसपैठियों से जुड़े सवाल तीखे विवाद को जन्म दे देते हैं । इस मामले को लेकर एक बार 1980 के दशक में भी असम में एक व्यापक जन-आंदोलन हो चूका है । उसकी आंदोलन की समाप्ति तत्कालीन राजीव गांधी की कॉंग्रेस सरकार और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के मध्य 1985 के अगस्त महीने में हुए समझौते से हुई। इस समझौते में ये सहमति बनाई गई कि 25 मार्च 1971 तक जो भी लोग असम में रह रहे थे, उन्हें भारत का आम नागरिक माना जाएगा।

ऐसी सहमति के बाद भी उस तारीख के पश्चात आए बांग्लादेशियों के पहचान का कोई भी प्रयास नहीं हुआ, इसीलिए उस समझौते के बाबजूद भी ये मसला जारी रहा। आखिरकार जब ये मामला बढ़ने लगा तब साल 2013 में जा कर उच्चतम न्यायलय ने एनआरसी बनाये जाने का सरकार को निर्देश दिया। इस एनआरसी के लिए ये निर्देश भी जारी किया गया कि जिनके परिजनों के नाम साल 1951 की एनआरसी या फिर 25 मार्च 1971 से पहले की वोटर लिस्ट में थे, उन्हें भारत का आम नागरिक समझा जाएगा। यह एक बेहद संवेदनशील मामला है, इसलिए इसमें कड़ाम फूंक-फूंककर रखा जा रहा है और ऐसा करना जरुरी भी है । यह आवश्यक है कि नागरिकों को अपनी नागरिकता को साबित करने के पर्याप्त अवसर मिलें।

जब ये कार्य अपने मुकाम पर पहुंचेगा तब एक कुछ नई चुनौती भी सामने आ जाएंगी और जो नागरिक अपनी नागरिकता साबित नहीं कर सकेंगे, उनका क्या होगा? क्या उन्हें फिर से बांग्लादेश वापिस लेने को आसानी से राजी भी होगा? या फिर उन्हें तिबत्तियों की तरह शरणार्थी का दर्जा दे कर देश के दूसरे राज्यों में बसाया जाएगा? असम के लोग अक्सर ये प्रश्न उठाते आये हैं कि घुसपैठियों या फिर शरणार्थियों का सारा बोझ सिर्फ उनका हीं राज्य अकेले क्यों उठाता रहे ? इसलिए बेहतर तो ये होगा कि केंद्र सरकार इस मुद्दे पर राजनीतिक सहमति बना कर प्रभावी कार्ययोजना बनाए।

एनआरसी बन जाने का एक दूसरा लाभ यह भी होगा कि भविष्य में ऐसे घुसपैठियों की पहचान में हमें आसानी होगी। लेकिन ऐसा सिर्फ तब बेहतर हो सकेगा जब पुरे देश में एनआरसी बनाने की तरफ हम अग्रसर हों । पिछली सरकारों के समय भी ऐसा विचार उठाया गया था। उचित होगा कि एक बार फिर उस पर चर्चा शुरू की जाए और 2021 में निर्धारित जनगणना के साथ साथ एनआरसी बनाने का कार्य भी पूरे देश में शुरू कर दिया जाय। इस मसले पर असम बाकी देश के लिए एक बढ़िया मिसाल और मॉडल बन कर सामने आ सकता है ।

Rohit Gangwal
By Rohit Gangwal , January 5, 2018

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