कोई भी वस्तु अगर आपको मुफ्त में मिल जाती है तो आपको उसकी महत्ता समझ नहीं आती और आप उसके प्रति हमेशा लापरवाह बने रहते हैं। ये लापरवाही एक आदत की तरह है जो हमारे देश में पहले भी लोगों को लगाई गई है और अब फिर से लगाई जा रही है। वर्तमान में तीन राज्यों में सत्ता परिवर्तन के बाद कांग्रेस की सरकारों ने आनन फानन में किसानों के कर्ज माफ़ी की घोषणाएँ कर दी हैं। इनमें से दो राज्यों में कांग्रेस को 15 साल बाद सत्ता हासिल हुई है। ऐसे में हम यह मान सकते हैं कि प्रदेश की वित्तीय हालात से वे भलीभांति परिचित नहीं होंगे। इसलिए सत्ता सम्हालने के बाद बजाय प्रदेश की वित्तीय हालात को समझने के आनन फानन में हजारों करोड़ के कर्ज माफ़ कर देने का निर्णय आश्चर्यचकित करता है।
हालांकि कर्ज माफी के निर्णयों पर अभी भी संशय की स्थिति बनी हुई है। कर्ज माफ़ी के दायरे में कौन आएंगे कौन नहीं आएंगे इसके तकनीकी पहलू पर न जाते हुए बस इस बात पर चर्चा करें कि क्या इतने बड़े कर्ज की रकम को माफ़ कर पाना प्रदेश की सरकारों के बस की बात है भी या नहीं तो हमें जवाब मिलेगा की नहीं ऐसा अकेले राज्य के बस की बात नहीं है। ऐसा करने पर प्रदेश का विकास कार्य ठप्प पड़ सकता है पर इसके बावजूद भी चुनावों को मद्देनज़र रखते हुए कई नेता और पार्टियां इस तरह की घोषणाओं का लाभ चुनावों में उठाते हैं और सफल भी होते हैं। इसका ताजा उदाहरण हमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में देखने को भी मिला है।
अगर कर्ज माफ़ी के इतिहास पर नजर डालें तो देश में सबसे पहले किसानों की कर्ज माफी पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के समय किया गया था। वो दिन था और आज का दिन है हर चुनावों में ऐसी घोषणाएँ होती हैं और ज्यादातर इस प्रकार की घोषणा करने वाले दलों की जीत भी होती है। आज विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा लिए गए उस पहले निर्णय के 28 साल बीत गए हैं और हाल ही में इसी कर्ज माफ़ी के वादे ने कांग्रेस को तीन राज्यों में जीत दिलाने में सबसे ज्यादा मदद की है।
एक मशहूर फिल्म का डायलॉग है की ‘आदतें अगर वक़्त पर ना बदली जाए तो जरूरतें बन जाती हैं’ पिछले 28 साल से चुनावी राजनीति के कारण कर्जमाफी बहुतों के लिए एक आदत की तरह बन गई है। कृषि कर्जमाफी जहाँ बैंकों के लिए बुरा है वहीं इसकी वजह से नए लोन देते समय बैंक किसानों को मना करने लग जाती है। इसके अलावा ज्यादातर किसान जो कर्ज चुकाने में सक्षम होते हैं वे भी अपना कर्ज चुकाना बंद कर देते हैं। कई लोग तो बस इसी आस में कृषि लोन ले लेते हैं कि आगे चलकर सरकार इसे माफ़ कर ही देगी। इन सबका असर बैंकों की वित्तीय स्थिति पर पड़ता है। इसके बाद बैंक नए कर्ज देने में तब तक सुस्त से हो जाते हैं, जब तक सरकार खुद उन्हें उनका पैसा ना लौटा दे, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कई वर्षों का समय लग जाता है। जब बैंक किसानों को कर्ज नहीं देती तब वे नॉन बैंकिंग स्रोत से कर्ज लेते हैं जो उनके लिए ज्यादा खतरनाक होता है।