kya 60 year purani aarakshan vyavastha ki sameeksha ka waqt aa gaya hai

क्या 60 साल पुरानी आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा का वक्त आ गया है?

आज़ादी के वक़्त हमारे देश में दलितों की स्थिति बहुत हीं दयनीय थी। इसी वजह से संविधान बनाने वालों ने बहुत सोच विचार के बाद संविधान में आरक्षण की व्यवस्था दी। साल 1950 में संविधान पारित होते हीं वंचित वर्गों को आरक्षण की सुविधाएँ मिलने लगी। आरक्षण देने के पीछे की मुख्य वजह ये थी की देश के संसाधनों, अवसरों और शासन प्रणाली पर समाज के हर वर्ग की सहभागिता सुनिश्चित हो।

स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी ने एक बार कहा था की “किसी भी व्यक्ति को अछूत कहा जाता है तो भारत देश को अपना सर झुकना पड़ेगा” । असल में इस आरक्षण की व्यवस्था के माध्यम से सोचा गया था की किसी विशेष जाती, धर्म, लिंग, भाषा और क्षेत्र के आधार पर किये जाने वाले सामाजिक भेदभाव से पीड़ित लोगों को आगे लाया जायेगा और अवसर प्रदान करवाया जाएगा। पर मौजूदा वक़्त में देश में चल रहे आरक्षण व्यवस्था को सही भी नहीं ठहराया जा सकता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है राजनेताओं के लिए आरक्षण आज सिर्फ एक वोट बैंक को साधने का एक उपकरण बन कर रह गया है। जो वंचित वर्ग है उसमे आज भी लोगों के पास आरक्षण की सुबिधायें नहीं मिल पाई है।

Late B R Ambedkar

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जब हमें आज़ादी मिली उसी समय से हमारे देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में भी आरक्षण लागू है। मंडल आयोग के सुझावों के लागू होने के बाद साल 1993 में अन्य पिछड़े वर्ग को भी नौकरियों में आरक्षण मिलने लगी। वहीं साल 2006 के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने देश भर के शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू कर दिया। पिछले दो तीन दशकों में लिए गए निर्णयों से आरक्षण की सुविधाएं अब एक ज्यादा बड़े वर्ग को मिलने लगा है, पर आखिर इन तमाम आरक्षण व्यवस्थाओं से क्या परिणाम निकला है !

अनुसूचित जातियों और जनजातियों को करीब 6 दशक से आरक्षण की सुविधा मिल रही है, मॉडल आयोग के सुझावों को भी लागू हुए अब ढाई दशक बीत गए हैं पर क्या इससे सच में किसी वंचित वर्ग को फायदा हो भी रहा है या फिर इस आरक्षित वर्ग से आने वाले कुछ लोग हीं पीढ़ी दर पीढ़ी इनके लाभ उठाते आ रहे हैं ?

सत्ता की आकांक्षा और वोट बैंक की चिंता में कोई भी सरकार कभी भी आरक्षण की समीक्षा की बात नहीं करती। जबकि संविधान निर्माता भीम राव आंबेडकर ने खुद कहा था की एक दशक के बाद आरक्षण के प्रावधानों की समीक्षा की जाए और उसमे उस समय के अनुसार बदलाव भी किये जाए। पर इन बातों को कोई भी राष्ट्रिय मंचों पर उठा नहीं पाता क्योंकि इससे उसके वोट बैंक के खिसकने का डर होता है।

मंडल आयोग के सुझावों पर लागू किये गए अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण की समीक्षा तो नामुमकिन हीं है, क्योंकि इस वर्ग से सम्बंधित कोई आंकड़ा मौजूद हीं नहीं है। सही आंकड़ों के नहीं होने के कारण आरक्षण के प्रभावों का कोई सही सही अनुमान नहीं लग सकता। इन आंकड़ों के आभाव में देश के अलग अलग संसाधनों, अवसरों और सरकारी विभागों में किस जाती का कितना हिस्सा है पता नहीं लगाया जा सकता है।

104वे संविधान संशोधन से सरकार ने देश भर के सरकारी विद्यालय और निजी शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाती और जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग के परीक्षार्थियों को आरक्षण की सुविधा दी । सरकार के इस निर्णय का कुछ तबकों ने विरोध कुछ ने समर्थन किया। असल में निजी क्षेत्रों में आरक्षण लागू कर पाना एक टेढ़ी खीर है, निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों का मकसद मुख्यतः लाभ कमाना होता है, वो अपने मुनाफे से समझौता नहीं कर सकते।

पिछले कई सालों से आरक्षण का नाम लेकर देश में राजनितिक आकांक्षाएं पूरी की जा रही है, अब तो स्थितियां और खराब हो रही हैं। हर कुछ महीने में कोई ना कोई जातीय वर्ग खुद के लिए आरक्षण की मांग करता है और अपने मांग के समर्थन में हिंसक आंदोलन भी करता है जिससे देश की सार्वजनिक संपत्ति आमलोगों की जानमाल की हानि होती है। देश भर में ऐसे आंदोलनों से अराजकता और अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

पिछले कुछ सालों में कई वर्गों ऐसे आंदोलन किये हैं। गुजरात में पटेल आरक्षण आंदोलन, हरियाणा जाट आरक्षण आंदोलन जैसे वाकये देश को अस्थिर बना देते हैं। विपक्षी दल ऐसे आन्दोलनों को अपने राजनैतिक लाभ के लिए और बढ़ावा देते हैं जिससे इन आन्दोलनों का स्वरुप और ज्यादा व्यापक हो जाता है।

अब राजनितिक हलकों में कई नेता अगड़ी जातियों को भी आरक्षण के प्रावधान के अंदर लाने के मुद्दे उठा रहे हैं। इसके पक्ष में उनका तर्क है की गरीवी जाती देख कर नहीं आती तो फिर आरक्षण जाती देख के क्यों दी जाती है।

बहरहाल आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार मान कर निचले तबके के नागरिकों के उत्थान के लिए उन्हें आरक्षण का प्रावधान देना न्यायोचित है, पर जाती या धर्म को आधार मान कर आरक्षण देना किसी भी परिस्थिति में न्यायोचित नहीं जान पड़ता है। इस तरह की आरक्षण व्यवस्था से जहाँ एक तरफ समाज में मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं वहीं दूसरी तरफ अपने पुरे जीवनकाल में हर कदम पे आरक्षण की वैसाखी अपना कर आरक्षित व्यक्ति हमेशा हीं अपंग सा महसूस करता है।

2015 में हुए बिहार विधान सभा चुनावों के वक़्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संग के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था की “आरक्षण के प्रावधानों की फिर से समीक्षा होनी चाहिए”। उनके इस बयान को विपक्ष ने मुद्दा बना कर चुनाव जीत लिया पर किसी ने मोहन भागवत जी की बात पर ध्यान नहीं दिया। जबकि उनकी बात पे चर्चा जरुरी है आरक्षण की 60 साल से भी ज्यादा पुरानी व्यवस्था की समीक्षा जरुरी है। इसी समीक्षा से हम जान पाएंगे की इस व्यवस्था से हमने उन लक्ष्यों को पाया भी है की नहीं जिन लक्ष्यों का निर्धारण आरक्षण लागू करने से पहले किया गया था।

Rohit Gangwal
By Rohit Gangwal , January 13, 2018

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